Bhaktamar Stotra | भक्तामर स्तोत्र [ lyrics & PDF ]

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भक्तामर स्तोत्र का जैन धर्म में बडा महत्व है। आचार्य मानतुंग का लिखा भक्तामर स्तोत्र सभी जैन परंपराओं में सबसे लोकप्रिय संस्कृत प्रार्थना है.

भक्तामर स्तोत्र में 48 श्लोक हैं, मंत्र शक्ति में आस्था रखने वालो के लिए यह एक दिव्य स्तोत्र है। इसका नियमित पाठ करने से मन में शांति का अनुभव होता है व सुख समृद्धि व वैभव की प्राप्ति होती है.

Bhaktamar Stotra Lyrics | भक्तामर स्तोत्र

भक्तामर – प्रणत – मौलि – मणि -प्रभाणा-मुद्योतकं दलित – पाप – तमो – वितानम्।सम्यक् -प्रणम्य जिन – पाद – युगं युगादा-वालम्बनं भव – जले पततां जनानाम्।

Meaning : झुके हुए भक्त देवो के मुकुट जड़ित मणियों की प्रथा को प्रकाशित करने वाले, पाप रुपी अंधकार के समुह को नष्ट करने वाले, कर्मयुग के प्रारम्भ में संसार समुन्द्र में डूबते हुए प्राणियों के लिये आलम्बन भूत जिनेन्द्रदेव के चरण युगल को मन वचन कार्य से प्रणाम करके (मैं मुनि मानतुंग उनकी स्तुति करुँगा)

य: संस्तुत: सकल – वाङ् मय – तत्त्व-बोधा-दुद्भूत-बुद्धि – पटुभि: सुर – लोक – नाथै:।स्तोत्रैर्जगत्- त्रितय – चित्त – हरैरुदारै:,स्तोष्ये किलाहमपि तं प्रथमं जिनेन्द्रम्॥ 2॥

Meaning : सम्पूर्णश्रुतज्ञान से उत्पन्न हुई बुद्धि की कुशलता से इन्द्रों के द्वारा तीन लोक के मन को हरने वाले, गंभीर स्तोत्रों के द्वारा जिनकी स्तुति की गई है उन आदिनाथ जिनेन्द्र की निश्चय ही मैं (मानतुंग) भी स्तुति करुँगा।

बुद्ध्या विनापि विबुधार्चित – पाद – पीठ!स्तोतुं समुद्यत – मतिर्विगत – त्रपोऽहम्।बालं विहाय जल-संस्थित-मिन्दु-बिम्ब-मन्य: क इच्छति जन: सहसा ग्रहीतुम् ॥ 3॥

Meaning : देवों के द्वारा पूजित हैं सिंहासन जिनका, ऐसे हे जिनेन्द्र मैं बुद्धि रहित होते हुए भी निर्लज्ज होकर स्तुति करने के लिये तत्पर हुआ हूँ क्योंकि जल में स्थित चन्द्रमा के प्रतिबिम्ब को बालक को छोड़कर दूसरा कौन मनुष्य सहसा पकड़ने की इच्छा करेगा? अर्थात् कोई नहीं

वक्तुं गुणान्गुण -समुद्र ! शशाङ्क-कान्तान्,कस्ते क्षम: सुर – गुरु-प्रतिमोऽपि बुद्ध्या ।कल्पान्त -काल – पवनोद्धत- नक्र- चक्रं ,को वा तरीतुमलमम्बुनिधिं भुजाभ्याम्॥ 4॥

Meaning : हे गुणों के भंडार! आपके चन्द्रमा के समान सुन्दर गुणों को कहने लिये ब्रहस्पति के सद्रश भी कौन पुरुष समर्थ है? अर्थात् कोई नहीं ।अथवा प्रलयकाल की वायु के द्वारा प्रचण्ड है मगरमच्छों का समूह जिसमें ऐसे समुद्र को भुजाओं के द्वारा तैरने के लिए कौन समर्थ है अर्थात् कोई नहीं।

सोऽहं तथापि तव भक्ति – वशान्मुनीश!कर्तुं स्तवं विगत – शक्ति – रपि प्रवृत्त:।प्रीत्यात्म – वीर्य – मविचार्य मृगी मृगेन्द्रम्नाभ्येति किं निज-शिशो: परिपालनार्थम्॥ 5॥

Meaning : हे मुनीश! तथापि-शक्ति रहित होता हुआ भी, मैं- अल्पज्ञ, भक्तिवश, आपकी स्तुति करने को तैयार हुआ हूँ| हरिणि, अपनी शक्ति का विचार न कर, प्रीतिवश अपने शिशु की रक्षा के लिये, क्या सिंह के सामने नहीं जाती? अर्थात जाती हैं।

अल्प- श्रुतं श्रुतवतां परिहास-धाम,त्वद्-भक्तिरेव मुखरी-कुरुते बलान्माम् ।यत्कोकिल: किल मधौ मधुरं विरौति,तच्चाम्र -चारु -कलिका-निकरैक -हेतु

Meaning : विद्वानों की हँसी के पात्र, मुझ अल्पज्ञानी को आपकी भक्ति ही बोलने को विवश करती हैं| बसन्त ऋतु में कोयल जो मधुर शब्द करती है उसमें निश्चय से आम्र कलिका ही एक मात्र कारण हैं।

त्वत्संस्तवेन भव – सन्तति-सन्निबद्धं,पापं क्षणात्क्षयमुपैति शरीरभाजाम् ।आक्रान्त – लोक – मलि -नील-मशेष-माशु,सूर्यांशु- भिन्न-मिव शार्वर-मन्धकारम

Meaning : आपकी स्तुति से, प्राणियों के, अनेक जन्मों में बाँधे गये पाप कर्म क्षण भर में नष्ट हो जाते हैं जैसे सम्पूर्ण लोक में व्याप्त रात्री का अंधकार सूर्य की किरणों से क्षणभर में छिन्न भिन्न हो जाता है.

मत्वेति नाथ! तव संस्तवनं मयेद, -मारभ्यते तनु- धियापि तव प्रभावात् ।चेतो हरिष्यति सतां नलिनी-दलेषु,मुक्ता-फल – द्युति-मुपैति ननूद-बिन्दु:

Meaning : हे स्वामिन्! ऐसा मानकर मुझ मन्दबुद्धि के द्वारा भी आपका यह स्तवन प्रारम्भ किया जाता है, जो आपके प्रभाव से सज्जनों, के चित्त को हरेगा।  निश्चय से पानी की बूँद कमलिनी के पत्तों पर मोती के समान शोभा को प्राप्त करती हैं।

आस्तां तव स्तवन- मस्त-समस्त-दोषं,त्वत्सङ्कथाऽपि जगतां दुरितानि हन्ति ।दूरे सहस्रकिरण: कुरुते प्रभैव,पद्माकरेषु जलजानि विकासभाञ्जि

Meaning : सम्पूर्ण दोषों से रहित आपका स्तवन तो दूर, आपकी पवित्र कथा भी प्राणियों के पापों का नाश कर देती है। जैसे, सूर्य तो दूर, उसकी प्रभा ही सरोवर में कमलों को विकसित कर देती है।

नात्यद्-भुतं भुवन – भूषण ! भूूत-नाथ!भूतैर्गुणैर्भुवि भवन्त – मभिष्टुवन्त:।तुल्या भवन्ति भवतो ननु तेन किं वाभूत्याश्रितं य इह नात्मसमं करोति 

Meaning : हे जगत् के भूषण! हे प्राणियों के नाथ! सत्यगुणों के द्वारा आपकी स्तुति करने वाले पुरुष पृथ्वी पर यदि आपके समान हो जाते हैं तो इसमें अधिक आश्चर्य नहीं है।  क्योंकि उस स्वामी से क्या प्रयोजन, जो इस लोक में अपने अधीन पुरुष को सम्पत्ति के द्वारा अपने समान नहीं कर लेता

दृष्ट्वा भवन्त मनिमेष – विलोकनीयं,नान्यत्र – तोष- मुपयाति जनस्य चक्षु:।पीत्वा पय: शशिकर – द्युति – दुग्ध-सिन्धो:,क्षारं जलं जलनिधेरसितुं क इच्छेत्?॥ 

Meaning : हे अभिमेष दर्शनीय प्रभो! आपके दर्शन के पश्चात् मनुष्यों के नेत्र अन्यत्र सन्तोष को प्राप्त नहीं होते। चन्द्रकीर्ति के समान निर्मल क्षीरसमुद्र के जल को पीकर कौन पुरुष समुद्र के खारे पानी को पीना चाहेगा? अर्थात् कोई नहीं

यै: शान्त-राग-रुचिभि: परमाणुभिस्-त्वं,निर्मापितस्- त्रि-भुवनैक – ललाम-भूत !तावन्त एव खलु तेऽप्यणव: पृथिव्यां,यत्ते समान- मपरं न हि रूप-मस्ति॥ 

Meaning : हे त्रिभुवन के एकमात्र आभुषण जिनेन्द्रदेव! जिन रागरहित सुन्दर परमाणुओं के द्वारा आपकी रचना हुई वे परमाणु पृथ्वी पर निश्चय से उतने ही थे क्योंकि आपके समान दूसरा रूप नहीं है।

वक्त्रं क्व ते सुर-नरोरग-नेत्र-हारि,नि:शेष- निर्जित – जगत्त्रितयोपमानम् ।बिम्बं कलङ्क – मलिनं क्व निशाकरस्य,यद्वासरे भवति पाण्डुपलाश-कल्पम्

Meaning : हे प्रभो! सम्पूर्ण रुप से तीनों जगत् की उपमाओं का विजेता, देव मनुष्य तथा धरणेन्द्र के नेत्रों को हरने वाला कहां आपका मुख? और कलंक से मलिन, चन्द्रमा का वह मण्डल कहां? जो दिन में पलाश (ढाक) के पत्ते के समान फीका पड़ जाता.

सम्पूर्ण- मण्डल-शशाङ्क – कला-कलाप-शुभ्रा गुणास् – त्रि-भुवनं तव लङ्घयन्ति।ये संश्रितास् – त्रि-जगदीश्वरनाथ-मेकं,कस्तान् निवारयति सञ्चरतो यथेष्टम्॥ 14॥

 Meaning : पूर्ण चन्द्र की कलाओं के समान उज्ज्वल आपके गुण, तीनों लोको में व्याप्त हैं क्योंकि जो अद्वितीय त्रिजगत् के भी नाथ के आश्रित हैं उन्हें इच्छानुसार घुमते हुए कौन रोक सकता हैं? कोई नहीं ।

चित्रं – किमत्र यदि ते त्रिदशाङ्ग-नाभिर्-नीतं मनागपि मनो न विकार – मार्गम्।कल्पान्त – काल – मरुता चलिताचलेन,किं मन्दराद्रिशिखरं चलितं कदाचित्

Meaning : यदि आपका मन देवागंनाओं के द्वारा किंचित् भी विक्रति को प्राप्त नहीं कराया जा सका, तो इस विषय में आश्चर्य ही क्या है? पर्वतों को हिला देने वाली प्रलयकाल की पवन के द्वारा क्या कभी मेरु का शिखर हिल सका है? नहीं ।

निर्धूम – वर्ति – रपवर्जित – तैल-पूर:,कृत्स्नं जगत्त्रय – मिदं प्रकटीकरोषि।गम्यो न जातु मरुतां चलिताचलानां,दीपोऽपरस्त्वमसि नाथ ! जगत्प्रकाश

Meaning : हे स्वामिन्! आप धूम तथा बाती से रहित, तेल के प्रवाह के बिना भी इस सम्पूर्ण लोक को प्रकट करने वाले अपूर्व जगत्प्र, काशक दीपक हैं जिसे पर्वतों को हिला देने वाली वायु भी कभी बुझा नहीं सकती 

नास्तं कदाचिदुपयासि न राहुगम्य:,स्पष्टीकरोषि सहसा युगपज्- जगन्ति।नाम्भोधरोदर – निरुद्ध – महा- प्रभाव:,सूर्यातिशायि-महिमासि मुनीन्द्र! लोके॥ 17॥

Meaning : हे मुनीन्द्र! आप न तो कभी अस्त होते हैं न ही राहु के द्वारा ग्रसे जाते हैं और न आपका महान तेज मेघ से तिरोहित होता है, आप एक साथ तीनों लोकों को शीघ्र ही प्रकाशित कर देते हैं अतः आप सूर्य से भी अधिक महिमावन्त हैं।

नित्योदयं दलित – मोह – महान्धकारं,गम्यं न राहु – वदनस्य न वारिदानाम्।विभ्राजते तव मुखाब्ज – मनल्पकान्ति,विद्योतयज्-जगदपूर्व-शशाङ्क-बिम्बम्॥

Meaning : हमेशा उदित रहने वाला, मोहरुपी अंधकार को नष्ट करने वाला जिसे न तो राहु ग्रस सकता है, न ही मेघ आच्छादित कर सकते हैं,अत्यधिक कान्तिमान, जगत को प्रकाशित करने वाला आपका मुखकमल रुप अपूर्व चन्द्रमण्डल शोभित होता है।

किं शर्वरीषु शशिनाह्नि विवस्वता वा,युष्मन्मुखेन्दु- दलितेषु तम:सु नाथ!निष्पन्न-शालि-वन-शालिनी जीव-लोके,कार्यं कियज्जल-धरै-र्जल-भार-नमै्र:॥ 19॥

Meaning : हे स्वामिन्! जब अंधकार आपके मुख रुपी चन्द्रमा के द्वारा नष्ट हो जाता है तो रात्रि में चन्द्रमा से एवं दिन में सूर्य से क्या प्रयोजन? पके हुए धान्य के खेतों से शोभायमान धरती तल पर पानी के भार से झुके हुए मेघों से फिर क्या प्रयोजन ।

ज्ञानं यथा त्वयि विभाति कृतावकाशं,नैवं तथा हरि -हरादिषु नायकेषु।तेजः स्फ़ुरन्मणिषु याति यथा महत्त्वं,नैवं तु काच -शकले किरणाकुलेऽपि

Meaning : अवकाश को प्राप्त ज्ञान जिस प्रकार आप में शोभित होता है वैसा विष्णु महेश आदि देवों में नहीं | कान्तिमान मणियों में, तेज जैसे महत्व को प्राप्त होता है वैसे किरणों से व्याप्त भी काँच के टुकड़े में नहीं होता।

मन्ये वरं हरि- हरादय एव दृष्टा,दृष्टेषु येषु हृदयं त्वयि तोषमेति।किं वीक्षितेन भवता भुवि येन नान्य:,कश्चिन्मनो हरति नाथ ! भवान्तरेऽपि

Meaning : हे स्वामिन्| देखे गये विष्णु महादेव ही मैं उत्तम मानता हूँ, जिन्हें देख लेने पर मन आपमें सन्तोष को प्राप्त करता है। किन्तु आपको देखने से क्या लाभ? जिससे कि प्रथ्वी पर कोई दूसरा देव जन्मान्तर में भी चित्त को नहीं हर पाता।

स्त्रीणां शतानि शतशो जनयन्ति पुत्रान्,नान्या सुतं त्वदुपमं जननी प्रसूता।सर्वा दिशो दधति भानि सहस्र-रश्मिं,प्राच्येव दिग्जनयति स्फुरदंशु-जालम् ॥ 22॥

Meaning : सैकड़ों स्त्रियाँ सैकड़ों पुत्रों को जन्म देती हैं, परन्तु आप जैसे पुत्र को दूसरी माँ उत्पन्न नहीं कर सकी| नक्षत्रों को सभी दिशायें, धारण करती हैं परन्तु कान्तिमान् किरण समूह से युक्त सूर्य को पूर्व दिशा ही जन्म देती हैं।

त्वामामनन्ति मुनय: परमं पुमांस-मादित्य-वर्ण-ममलं तमस: पुरस्तात्।त्वामेव सम्य – गुपलभ्य जयन्ति मृत्युं,नान्य: शिव: शिवपदस्य मुनीन्द्र! पन्था:॥ 23॥


त्वा-मव्ययं विभु-मचिन्त्य-मसंख्य-माद्यं,ब्रह्माणमीश्वर – मनन्त – मनङ्ग – केतुम्।योगीश्वरं विदित – योग-मनेक-मेकं,ज्ञान-स्वरूप-ममलं प्रवदन्ति सन्त: ॥ 24॥

बुद्धस्त्वमेव विबुधार्चित-बुद्धि-बोधात्,त्वं शङ्करोऽसि भुवन-त्रय- शङ्करत्वात् ।धातासि धीर! शिव-मार्ग विधेर्विधानाद्,व्यक्तं त्वमेव भगवन् पुरुषोत्तमोऽसि॥ 25॥

तुभ्यं नमस् – त्रिभुवनार्ति – हराय नाथ!तुभ्यं नम: क्षिति-तलामल -भूषणाय।तुभ्यं नमस् – त्रिजगत: परमेश्वराय,तुभ्यं नमो जिन! भवोदधि-शोषणाय॥ 26॥


को विस्मयोऽत्र यदि नाम गुणै-रशेषैस्-त्वं संश्रितो निरवकाशतया मुनीश !दोषै – रुपात्त – विविधाश्रय-जात-गर्वै:,स्वप्नान्तरेऽपि न कदाचिदपीक्षितोऽसि॥ 27॥


उच्चै – रशोक- तरु – संश्रितमुन्मयूख -माभाति रूपममलं भवतो नितान्तम्।स्पष्टोल्लसत्-किरण-मस्त-तमो-वितानं,बिम्बं रवेरिव पयोधर-पाश्र्ववर्ति॥ 28॥

सिंहासने मणि-मयूख-शिखा-विचित्रे,विभ्राजते तव वपु: कनकावदातम्।बिम्बं वियद्-विलस – दंशुलता-वितानंतुङ्गोदयाद्रि-शिरसीव सहस्र-रश्मे: ॥ 29॥


कुन्दावदात – चल – चामर-चारु-शोभं,विभ्राजते तव वपु: कलधौत -कान्तम्।उद्यच्छशाङ्क- शुचिनिर्झर – वारि -धार-मुच्चैस्तटं सुरगिरेरिव शातकौम्भम् ॥ 30॥

छत्र-त्रयं तव विभाति शशाङ्क- कान्त-मुच्चै: स्थितं स्थगित-भानु-कर-प्रतापम्।मुक्ता – फल – प्रकर – जाल-विवृद्ध-शोभं,प्रख्यापयत्-त्रिजगत: परमेश्वरत्वम्॥ 31॥


गम्भीर – तार – रव-पूरित-दिग्विभागस्-त्रैलोक्य – लोक -शुभ – सङ्गम -भूति-दक्ष:।सद्धर्म -राज – जय – घोषण – घोषक: सन्,खे दुन्दुभि-र्ध्वनति ते यशस: प्रवादी॥ 32॥


मन्दार – सुन्दर – नमेरु – सुपारिजात-सन्तानकादि – कुसुमोत्कर – वृष्टि-रुद्धा।गन्धोद – बिन्दु- शुभ – मन्द – मरुत्प्रपाता,दिव्या दिव: पतति ते वचसां ततिर्वा॥ 33॥


शुम्भत्-प्रभा- वलय-भूरि-विभा-विभोस्ते,लोक – त्रये – द्युतिमतां द्युति-माक्षिपन्ती।प्रोद्यद्- दिवाकर-निरन्तर – भूरि -संख्या,दीप्त्या जयत्यपि निशामपि सोमसौम्याम्॥34॥


स्वर्गापवर्ग – गम – मार्ग – विमार्गणेष्ट:,सद्धर्म- तत्त्व – कथनैक – पटुस्-त्रिलोक्या:।दिव्य-ध्वनि-र्भवति ते विशदार्थ-सर्व-भाषास्वभाव-परिणाम-गुणै: प्रयोज्य:॥ 35॥


उन्निद्र – हेम – नव – पङ्कज – पुञ्ज-कान्ती,पर्युल्-लसन्-नख-मयूख-शिखाभिरामौ।पादौ पदानि तव यत्र जिनेन्द्र ! धत्त:,पद्मानि तत्र विबुधा: परिकल्पयन्ति॥ 36॥


इत्थं यथा तव विभूति- रभूज् – जिनेन्द्र !धर्मोपदेशन – विधौ न तथा परस्य।यादृक् – प्रभा दिनकृत: प्रहतान्धकारा,तादृक्-कुतो ग्रहगणस्य विकासिनोऽपि॥ 37॥

श्च्यो-तन्-मदाविल-विलोल-कपोल-मूल,मत्त- भ्रमद्- भ्रमर – नाद – विवृद्ध-कोपम्।ऐरावताभमिभ – मुद्धत – मापतन्तंदृष्ट्वा भयं भवति नो भवदाश्रितानाम्॥ 38॥


भिन्नेभ – कुम्भ- गल – दुज्ज्वल-शोणिताक्त,मुक्ता – फल- प्रकरभूषित – भूमि – भाग:।बद्ध – क्रम: क्रम-गतं हरिणाधिपोऽपि,नाक्रामति क्रम-युगाचल-संश्रितं ते॥ 39॥

कल्पान्त – काल – पवनोद्धत – वह्नि -कल्पं,दावानलं ज्वलित-मुज्ज्वल – मुत्स्फुलिङ्गम्।विश्वं जिघत्सुमिव सम्मुख – मापतन्तं,त्वन्नाम-कीर्तन-जलं शमयत्यशेषम्॥ 40॥


रक्तेक्षणं समद – कोकिल – कण्ठ-नीलम्,क्रोधोद्धतं फणिन – मुत्फण – मापतन्तम्।आक्रामति क्रम – युगेण निरस्त – शङ्कस्-त्वन्नाम- नागदमनी हृदि यस्य पुंस:॥ 41॥

वल्गत् – तुरङ्ग – गज – गर्जित – भीमनाद-माजौ बलं बलवता – मपि – भूपतीनाम्।उद्यद् – दिवाकर – मयूख – शिखापविद्धंत्वत्कीर्तनात्तम इवाशु भिदामुपैति॥ 42॥


कुन्ताग्र-भिन्न – गज – शोणित – वारिवाह,वेगावतार – तरणातुर – योध – भीमे।युद्धे जयं विजित – दुर्जय – जेय – पक्षास्-त्वत्पाद-पङ्कज-वनाश्रयिणो लभन्ते॥ 43॥


अम्भोनिधौ क्षुभित – भीषण – नक्र – चक्र-पाठीन – पीठ-भय-दोल्वण – वाडवाग्नौ।रङ्गत्तरङ्ग -शिखर- स्थित- यान – पात्रास्-त्रासं विहाय भवत: स्मरणाद्-व्रजन्ति ॥ 44॥

उद्भूत – भीषण – जलोदर – भार- भुग्ना:,शोच्यां दशा-मुपगताश्-च्युत-जीविताशा:।त्वत्पाद-पङ्कज-रजो – मृत – दिग्ध – देहा,मर्त्या भवन्ति मकर-ध्वज-तुल्यरूपा:॥ 45॥


आपाद – कण्ठमुरु – शृङ्खल – वेष्टिताङ्गा,गाढं-बृहन्-निगड-कोटि निघृष्ट – जङ्घा:।त्वन्-नाम-मन्त्र- मनिशं मनुजा: स्मरन्त:,सद्य: स्वयं विगत-बन्ध-भया भवन्ति॥ 46॥


मत्त-द्विपेन्द्र- मृग- राज – दवानलाहि-संग्राम-वारिधि-महोदर – बन्ध -नोत्थम्।तस्याशु नाश – मुपयाति भयं भियेव,यस्तावकं स्तव-मिमं मतिमानधीते॥ 47॥


स्तोत्र – स्रजं तव जिनेन्द्र गुणैर्निबद्धाम्,भक्त्या मया रुचिर-वर्ण-विचित्र-पुष्पाम्।धत्ते जनो य इह कण्ठ-गता-मजस्रं,तं मानतुङ्ग-मवशा-समुपैति लक्ष्मी:॥ 48॥

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भक्तामर जी के कितने काव्यों में स्तुति का संकल्प किया गया है

भक्तामर स्तोत्र के 48 काव्यों में 192 पंक्तियां हैं। * भक्तामर स्तोत्र के 48 काव्यों में 2688 अक्षर हैं। * भक्तामर स्तोत्र के प्रारंभ के दो काव्यों में आचार्य श्री मानतुंग महाराज जी ने स्तोत्र रचने की प्रतिज्ञा (संकल्प) की है।

भक्तामर स्तोत्र के लाभ

गुण- यंत्र को पास में रखने से तथा भक्तामर स्तोत्र के 41वां काव्य ऋद्धि तथा मंत्र का बारम्बार स्मरण करने से राज दरबार में सम्मान मिलता है, प्रतिष्ठा बढ़ती है तथा इसी मंत्र के झाड़ने से विषधर का विष उतरता है। कांस्य-पात्र में जल भरकर 108 बार मंत्र कर मंत्रित जल पिलाने से विष का प्रभाव दूर हो जाता 

भक्तामर स्तोत्र के रचयिता

आचार्य मानतुंग 

Conclusion :

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